चीन विरोध का द्वन्द - Say No to China



न पोथी न बही, जो हम कहे वही सही.




पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कुछ ऐसा घटा जिससे की जनमानस उद्विग्न हो गया. आज पुरे हिंदुस्तान में या यु कहे हर हिंदुस्तानी के दिलो दिमाग में चीन और पाकिस्तान को पटखनी देने की बहस बहुत शिद्दत से जारी है. और क्यों न हो चीन ने NSG के मुद्दे पे हमारे हक़ में वोट नहीं दिया. विरोध तो होना चाहिए. होली जलाओ चीन के हर प्रोडक्ट की. बहिष्कार होना चाहिए चीन का और उसके हर उत्पाद का. जगह जगह प्रदर्शन हो रहे है बहस का माहौल गरम है. लेकिन इस पर सार्थक बहस कौन करेगा ? आधी अधूरी जानकारी पर राष्ट्रवाद की दुहाई दे कर पुरे देश में एक अजीब सा माहौल तैयार हो गया है. दुःख हर आदमी को है और मुझे भी, पर विरोध कैसे करे जब अपनी वर्तमान सरकार ही अंकुश नहीं लगा रही ना ही किसी औद्योगिक घराने से कोई विरोध की प्रतिक्रिया ? सिर्फ उपभोक्ता ही विरोध करे- पर कैसे ? और विरोध की जमीन कैसे तैयार हो जब सरकार और औद्योगिक घराने ही नहीं चाहते की चाइनीज़ प्रोडक्ट का बहिष्कार हो इसमें इन सबके हित जो जुड़े है.

पिछले 68 सालो में देश में सिर्फ व्यक्ति या पार्टी विशेष से जुड़े लोगो के महिमामंडन के लिए लाखो करोड़ बहा दिए गए जो की देश के औद्योगीकरण और अन्य चीज़ो पे खर्च होते तो आज स्थिति कुछ और होती. स्मारक ट्रस्ट और अन्य मदो में. हम भी लगे हुए है बन्दर बाट में. किसी भी जगह चले जाओ हिंदुस्तान के नामपर कोई स्मारक नहीं मिलेगा- न दिल में और ना ही जमीन पे. 

सरकार आती रही और जाती रही पर किसी को फुर्सत नाही थी देश के विकास की नींव रखने की. नींव राखी जा रही थी तो बड़े बड़े नमो की स्मारकों की और पार्टी के हित की. किसी ने व्यापारिक हितों के लिए कोई कमेटी ही नही बनाई और ना ही कोई ऐसा मंत्रालय जो व्यापारियों के हित की बात करे और सरकार और व्यापारियों के साझा हित की बात करे. सब चीज़ो का राजनीतिकरण. मंडी तक के अध्यक्ष राजनितिक लोग. कला संकाय या प्रतिष्ठान के नाम पर राजनितिक खैरख़्वाह. 

गत 50 सालो में गलत और अव्यवहारिक सरकारी नीतियों से उद्योग धंधे भी नष्ट हुए और आयात बढ़ता गया और निर्यात गिरता गया.  सबसे ज्यादा कृषि योग्य भूमि होने के बाद भी हमें अनाज आयात करना पड़ रहा है- खनिज के मामले में भी यही है- हिंदुस्तान से मार्बल जाता है और इटली से पोलिश हो के वापस ८-१० गुने दाम पर मिलता है- हमारी ही जूती हमारे ही सर पे. हैंडलूम और कपडे की मिल्स कब बंद हुए किसी को फर्क नहीं है- सरकारी उपक्रम घाटे में है पर इनके सर्वेसर्वा फायदे में- किसी की जवाबदारी क्यों नहीं ? सबसे सस्ते कामगार होने के बाद भी यहाँ बने प्रोडक्ट चीन से महंगे पड़ते है- क्युकी हमारे सरकार की कोई स्पष्ट सरकारी निति नहीं है किसी प्रकार के उद्योग के प्रोत्साहन हेतु- सब्सिडी और आरक्षण के लूट पे चल रहे देश में व्यक्तिगत स्वार्थ राष्ट्रवाद पर हमेशा भारी पड़ा- प्रतिभा आरक्षण के चलते पलायन कर विदेशी कंपनीयो के हित में काम कर रही है- प्रशासन में ईमानदारी का आलम ये है की पुलिस चोरो की जगह आम आदमी को प्रताड़ित करने का महकमा बन गया है. टैक्स विभाग टैक्स चोरी वालो से मिलकर सरकारी खजाने में जाने वाले पैसो में अपना हिस्सा तय कर लेते है और सरकार के खजानों में वाही नाम का पैसा. सरकारी पैसो से चलने वाले शिक्षा संस्थान में उच्च शिक्षा लेने वाले भारतीय राष्ट्रवादी अमेरिका और यूरोप के गुण गाते है. राजनितिक लोग देश की छोड़ आलाकमान के प्रति ज्यादा वफादार है- देश के सरकारी सहायता से बने डॉक्टर देश के ही गावों में काम करने के लिए तैयार नहीं है- उन्हें अमेरिका का वीसा चाहिए- कहा का हिंदुस्तान और कौन सा राष्ट्रवाद. चीन से विरोध किस बुते पे करोगे- हम निकम्मे हो गए है इसको मान लो. हरामखोरी में अव्वल है हम लोग. 
विरोध करना चाहिए और करना ही होगा लेकिन उसके लिए जमीन कौन तैयार करेगा. बेशक हम आप और हमारी सरकार. और हम कितने हिंदुस्तानी है ये भी एक मुद्दा है. और ये मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण है. स्वदेशी आंदोलन का ढोंग तो हर कोई कर रहा है पर कितने स्वदेशी है ये सबको पता है. विरोध होना चाहिए पर इस बात को भी ध्यान में रख कर चलना होगा. १९५९ में दलाई लामा को शरण देने के साथ ही चीन से सम्बन्धो में खटास हो गयी थी. ये चीन के आतंरिक मामलो में पहला हस्तक्षेप था और आज तक दलाई लामा भारत में बैठ कर तिब्बत की समानांतर सरकार चला रहे है. क्या हम कश्मीर के बारे में ऐसा सोच सकते है ? आज चीन ने रोड और रेलवे से अपने उद्योग को विश्व के हर छोटी से छोटी जगह पे व्यापर का मौका दिया है और वहां का सरकारी तंत्र वहां के हर छोटे छोटे उद्योगों को सहयोग दे कर उसे विश्व के हर तबके और देश को बेच कर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में लगा है. और उसके पलट हमारे सरकारी तंत्र में काम करने वाला हर अधिकारी या कर्मचारी, राजनेता हर इन सबमे में देश और राष्ट्रवाद कहा रह गया. १० रुपये की चीज़ का दाम २०० रुपये भी कर लो कोई नहीं पूछेगा, पैसे तो आम आदमी के जेब से ही जाना है चाहे कितना भी रो लो महगाई को खत्म कैसे होगी ? इसके नींव में यही बन्दर बाट की रकम जुड़ती रहेगी. जब तक देश के सरकार और बैंक देश की अर्थव्यवस्था में अपना हिस्सा लेना बंद कर के ईमानदारी से अपने काम को अंजाम नहीं देंगे तब तक राष्ट्रवाद की ढपली कितनी भी बजा लो देश का विकास नहीं होगा और जब देश का विकास नहीं होगा तब तक आयात पे निर्भरता बनी रहेगी. एक दो दिन गाला फाड़ लोगे भारत माता की जय बोलकर पर तीसरे दिन फिर लग जाओगे गए अपने हिस्से का कमीशन उगाहने में. चाहे वो रोड पे चलने वाले वाहनों का एंट्री फीस हो या गली मोहल्लों में में खिलोने, या आम जरुरत के सामान बनाने वालो से प्रदुषण के नाम पर पर उगाही हो , छोटे मझोले व्यापारियों से सुविधा शुल्क या टैक्स चोरी के नाम पर वसूली हो चलता रहेगा. चाहे कितनी भी सस्ती कामगार सेना हो देश में इस देश की उत्पादक इकाइयां सस्ते या उचित दर पे उत्पादन नहीं कर सकती और देश में उद्योग कभी भी पनपेंगे नहीं अगर देश के हर आदमी का मन देश के विकास से नहीं जुड़ेगा और हमें चाइना से सस्ते सामान आयात करना ही होगा. करना है विरोध तो करो गलत तरीकों का, सरकारी तंत्र की भ्रस्ट नीतियों और काम के तरीकों का और अपने बीच में पल रहे उन आदतों का जो इन चीज़ो को शह दे रहे है. जिससे की हर शहर और कस्बे में काम करना आसान हो और देश में आत्मनिर्भरता बने जिससे की चीन जैसे देश से सामान न लेना पड़े. जब तक आयात काम नहीं होगा और देश के आम जीवन की जरूरतों का सामान देश में नहीं बनेगा तब तक चीन ताइवान जैसे देशो से टक्कर लेना भूल ही जाओ. अगर हिंदुस्तानी हो तो आज ही तय करो की काम करेंगे कामचोरी नहीं. सरकार को विवश करो भ्रस्टाचार रोकने को.

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